shyamd wrote:Bangalore police have picked up 3 people for spreading rumours relating to the exodus. Apparently one activist printed 10,000 leaflets. Exodus from BLR down to 40 people and railways has confirmed they have cancelled their special trains.
There is an exercise on now in major cities to tell the youth to stop by getting imams and 'community elders' to issue calls in all the mosques etc.
Had the imams and so called "community elders" done this exercise on a regular basis after every friday prayers,world would have been a better place for everyone.Its like,Kauva kaan le gaya aur Kauva ke peeche bhaago.This is all Takiya by the imams and the "community elders".But why will they,their religion says otherwise.Here's a comment a poster put on another forum which very much describes the dilemma for us.
आसाम के दंगे हिन्दू -मुस्लिम दंगे न होकर बांग्लादेसी मुस्लिम्स और बोड़ो जन जाति के बीच के झगड़े है जो अब सांप्रदायिक दंगो का रंग ले चुके है । स्थानीय कॉलेज के स्टूडेंट्स का झगड़ा ,बढ़ कर दंगो का रूप ले चुका है ,और अफवाहों ने माहोल को गरम कर दिया है।परंतु दक्षिण भारत या यूपी मे मुसलमानो का उबाल खाना समझ से परे है । मुसलमान अपने मामूली जख्मो को बढ़ा चढ़ा कर और खुद के द्वारा किए बड़े नुकसान को मामूली बताने के आदि है और झूठ बोलने के उस्ताद है। मुस्लिम्स मे वतनपरस्ती न के बराबर होती है और इस्लाम परस्ती चरम पे होती है।दरअसल , मुस्लिम मे वतन के लिय मर मिटने का कही भी उल्लेख नहीं है , उनका कुर्बानी का जज्बा केवल इस्लाम तक सीमित होता है । वतन खतरे मे कह कर शायद ही किसी मुसलमान को युद्ध के लिय तयार किया जा शके पर इस्लाम खतरे मे कह कर उनको युद्ध के लिय तत्काल भड़काया जा शकता है। येही कारण है की आज मुसलमान ,इराक , अरब या ईरान या पाकिस्तान के लिय नहीं मर रहा बल्कि वो इस्लाम के खतरे से ही जूझ रहा है । अमेरिका ने इराक पे हमला किया और बसरा से बगदाद तक बड़े आराम से चला गया कही कोई विरोध नहीं हुआ और सद्दाम को भाग खड़ा होना पड़ा , यह सब साबित करता है की इनमे वतन परस्ती न के बराबर है । मध्यकाल की लड़ाई भी इस्लामी वर्चस्व की ही लड़ाई थी ,कभी भी किसी मुस्लिम कंट्री ने राष्ट्रियता की भावना से कोई युद्ध नहीं लड़ा । संक्षेप मे , इस्लाम और राष्ट्रियता साथ नहीं चल शकती । कुछ लोग (RSS ) यह भी सोचते है की मुस्लिम्स को अपनी इतिहासिक जड़ो को याद रखना चाहिय की इंडिया मे उनके पूर्वज कभी हिन्दू या बोद्ध थे , परंतु उनके लिय मै लिख दूँ की मुस्लिम्स मे मुस्लिम बनते ही तत्काल अपने गत समय (past) को भूलना ही पड़ता है , और गैर -मुस्लिम उनके लिय एक अजनबी बन जाता है भले ही उ***ा सगा भाई ही क्यो न हो ।उधाहरण :- (1) 1857 से पहले , कुछ अंग्रेज़ ,इंडिया मे मुगल लेडिज से शादी कर मुसलमान बन गए थे , ईस्ट इंडिया कंपनी ने गदर मे उनको मुस्लिम की साइड मे लड़ते देखा और सर्प्राइज़ किया की उनकी लोयल्टी अंग्रेजों के साथ बिलकुल भी नहीं थी हालांकि वो ब्रिताइन मूल के थे , अंग्रेज़ो ने उन मुस्लिम अंग्रेज़ो भी फांसी पे टांगा । (2) इस्लाम के नबी मोहम्मद ने अपने को बचपन मे पालने वाले अपने सगे चाचा आबु तालिब ( अली का फादर ) की मय्यत मे सामील होने से इंकार कर दिया और अली को दफनाने को जाने को कहा क्योकि आबु तालिब ने अपने मरते वक़्त तक इस्लाम स्वीकार नहीं किया था । इन दो उदाहरणो से साफ हो जाएगा की इस्लाम मे वतन , नाते , रिस्ते , इतिहास सब बेकार है और मजहब सब कुछ । इसी मानसिकता के कारण दंगे -फसाद , युद्ध , बगावत सब कुछ तय होता है। आसाम के दंगो पे मुसलमानो का उबलना कोई वतन परस्ती नहीं , राष्ट्रीय एकता नहीं बस केवल मजहबपरस्ती है बिना यह सोचे समझे की सायद गलती असम मे मुसलमानो की ही हो , पर मजहबपरसती के आगे इंसाफ की बात ही करना बेमानी है।